15 March 2010

त्रासदी प्रेम की...कविता की

पुरानी डायरी के पुराने पन्नों को पलटना एच० जी० वेल्स के टाइम-मशीन सा ही चमत्कार दिखाता है...पीछे छूट गयी दुनिया में ले जाते हुये। कहीं रेनोल्ड, तो कहीं एड जेल, तो कहीं फाउंटेन पेन की बेतरतीब अटपटी लेखनी में तन्हा रातों को उकेरे गये शब्द कभी खुद को चमत्कृत करते हैं और कभी एक झेंप-सी पैदा करते हैं। ऐसे ही एक दिन किसी पुरानी डायरी के एक अटपटे-से झेंपे पन्ने को उठा कर शरद कोकास जी को भेज दिया एक सकुचाये हुये प्रश्न के साथ कि ये डायरी है या कविता(?)। कविता- उनका जवाब आया। ...तो उनके जवाब से संबल लेते हुये आपलोगों के समक्ष प्रस्तुत है डायरी का वही अटपटा-सा झेंपा हुआ पन्ना :-

नहीं देखा है मैंने कभी
फूल अमलतास का
जो कभी दिख भी जाये
तो शायद पहचानूँ ना,
जिक्र करता हूँ इसका फिर भी
अपनी कविता में-
तुम्हारे लिये

गौर नहीं किया कभी सुबह-सुबह
शबनम की बूँदों पर
झूलती रहती हैं जो दूब की नोक संग,
बुनता हूं लेकिन कविता इनसे-
तुम्हें सुनाने के लिये

सच कहूं तो
ये चाँद भी
तुम्हारी याद नहीं दिलाता
फुरसत ही कहाँ जो देखूँ इसे,
सजता है ये मगर मेरी कविता में अक्सर-
तुम्हारी खिलखिलाहट के लिये

ये अमलताश के फूल
ये शबनम की बूँदें
ये चाँद की चमक
और
तुम

प्रेम की अपनी त्रासदी है
और कविता की अपनी...



डायरी पर खुदा हुआ वर्ष और पन्ने पर छपी हुई तारीख ले जाती है तकरीबन तेरह साल पहले पुणे, खड़गवासला की घाटियों में किसी कार्पा डोंगर और राला रासी नामक पहाड़ियों पर। लथ-पथ पसीने में डूबा जिस्म, टूटते कंधों और चुभते तलवों के साथ खत्म होता हुआ दिन लेकर आता है चाँद अपने संग और उपजती है ये अटपटी पंक्तियाँ लगभग पंद्रह सौ किलोमीटर दूर बैठी एक बड़े-से शहर की एक छोटी-सी लड़की के लिये। कितना अद्‍भुत टाइम-मशीन है ये सच...! जिन कार्पा डोंगर और राला रासी की चढ़ाईयाँ चढ़ने में कभी पिट्ठु और राइफल लिये कंधे टूट जाते थे, तलवे छिल जाते थे...ये मशीन मुझे एक झटके में वहाँ ले जाता है अब। बस एक पन्ना ही तो पलटना होता है- झेंपा हुआ अटपटा-सा पन्ना :-)


10 March 2010

यक़ीं कीजे, ये मैं ही हूँ, जरा फोटो पुरानी है

छुट्टियाँ कब बीत जाती हैं, पता भी नहीं चलता। ड्युटी पर आये हुये ये चौथा दिन और फिर से वही अहसास कि जैसे यहीं हूँ सदियों से। सतरह सालों बाद इस बार उपस्थित हो पाया था होली पर अपने गाँव में और क्या खूब होली जमी। अबके इधर कश्मीर में खूब-खूब बर्फ गिरी है...ग्लोबल वार्मिंग की तमाम धमकियों को धता बताते हुये। एक तरफ झेलम की हँसी छुपाये नहीं छुप रही तो दूसरी तरफ चिनारों के अट्टहास गुंजायमान हैं वादी के कोने-कोने में। यूं चंद सिरफिरों की उन्मादी हरकतें खलल डालती हैं बीच-बीच में वादी के इस हर्षोल्लास में, किंतु मुस्तैद हरी वर्दियाँ ज्यादा देर टिकने नहीं देती हैं इस खलल को।

...और इन समस्त व्यस्तताओं के मध्य मुझसे अपने प्रिय ब्लौगरों के कई पोस्ट छूट गये हैं। पकड़ता हूँ धीरे-धीरे सब "छूट गयों" को। फिलहाल आज की बात कि दिन खास है आज का। दिन बहुत खास है कि मेरे प्रिय शायर का जन्म-दिन है ये। कुमार विनोद का जन्म-दिन । वैसे पता तो ये भी चला है कि आज ही के दिन मैं भी पैदा हुआ था अहले सुबह करीब दस हजार साल पहले। लेकिन हम "पाल ले इक रोग नादां के..." के इस पन्ने पर मनायेंगे कुमार विनोद की सालगिरह उन्हीं की एक बेहतरीन ग़ज़ल गुनगुनाकर। आइये गुनगुनाते हैं उनकी लाजवाब बिम्बों और अनूठे अंदाज वाले शेरों से सजी इस ग़ज़ल को:-

कभी लिखता नहीं दरिया, फ़क़त कहता ज़बानी है
कि दूजा नाम जीवन का रवानी है, रवानी है

बड़ी हैरत में डूबी आजकल बच्चों की नानी है
कहानी की किताबों में न राजा है, न रानी है

कहीं जब आस्माँ से रात चुपके से उतर आये
परिंदा घर को चल देता, समझ लेता निशानी है

कहाँ जायें, किधर जायें, समझ में कुछ नहीं आता
कि ऐसे मोड़ पर लाती हमें क्यों जिंदगानी है

बहुत सुंदर से इस एक्वेरियम को गौर से देखो
जो इसमें कैद है मछली,क्या वो भी जल की रानी है

घनेरे बाल, मूँछें और चेहरे पर चमक थोड़ी
यक़ीं कीजे, ये मैं ही हूँ, जरा फोटो पुरानी है


...अपने गाँव से पटना की ट्रेन यात्रा के दौरान "शुक्रवार" पत्रिका के नये अंक को पलट कर देख रहा था तो नजर पड़ी कुमार विनोद की ग़ज़ल-संग्रह "बेरंग हैं सब तितलियाँ" {जिसकी चर्चा मैं कुछ दिनों पहले
यहाँ कर चुका था} की समीक्षा पर। अच्छा लगा देखकर...बहुत अच्छा लगा देखकर कि ग़ज़लों की बात हो रही है अच्छी पत्र-पत्रिकाओं में। कुमार विनोद जैसे शायर हों अपने आस-पास तो ग़ज़ल का भविष्य वैसे भी सुरक्षित दिखता है।

02 March 2010

कुछ रंग अनदेखे-से...

होली की खुमारी चेहरे पे लगे रंगों के गीलेपन के साथ ही धीरे-धीरे सूखती हुई...उतरती हुई। रंगों की ये धमाचौकड़ी पूरे मौसम को ताजगी देती हुई-सी, जिसकी आगे आने वाले पतझड़ के वास्ते डटे रहने के लिये दरकार है। हर रंग अपनी कहानी कहता हुआ...और ऐसे में अचानक से मुझे कुछ ऐसे रंगों की याद आती है जिन्हें सिर्फ कविताओं में, ग़ज़ल के शेरों में, कहानियों में , गीतों में...अपने प्रिय साहित्यकारों द्वारा बिम्बों, प्रतिकों के तौर पे इस्तेमाल करते हुये पढ़ा जाता है। ये रंग जिन्हें हम सिर्फ पढ़ते हैं शब्दों में, देख कभी नहीं पाते हैं हकीकतन। कम-से-कम मैं तो नहीं ही देख पाया हूँ अब तलक। किंतु इन रंगों की खुमारी कम नहीं है कहीं से भी, अभी-अभी चेहरे पे पुते इन गीले रंगों के मुकाबले। आइये देखते हैं शब्दों वाले ये अजीब नशीले रंग जो आपलोगों की निगाहों के समक्ष से भी गुजरते होंगे यदा-कदा :-

नीला चाँद

कत्थई आँखें

हरी तबीयत

पीली बारिश

बैंगनी अँधेरा

सब्ज़ रूहें

इंद्रनुषी ने

मटमैले हर्फ
लाल प्रश्न

सुर्ख हवा

चितकबरी यादें


रंगों का ये नशा हमपे, आपसब पे सर्वदा-सर्वदा छाया रहे...!