09 February 2014

चाँद उतर आया था मेरे छज्जे पर कल शाम ढ़ले...

किसी हक़ीक़त का रुतबा लिए एकदम से उभरा था वो फ़साना और सब कुछ गड्ड-मड्ड सा है तभी से तो...वक़्त, वजूद, वुसअत !!! अनगीन टूटे ख़्वाबों में चंद जो पर लगाये उड़ निकले, उन्हीं ने तो संभाला दिया फिर...वक़्त को वजूद और वजूद को वुसअतें...   

कितने ख़्वाबों के पर टूटे, कितने उड़ने वाले हैं
कुछ हैं ग़ैरों वाले इनमें, कुछ तो अपने वाले हैं

करवट-करवट रातों वाले काले-उजले सपनों में
(तस्वीर analogholiday.blogspot से साभार)
इक चेहरे के लाल-गुलाबी रंग अब घुलने वाले हैं

ख़्वाहिश-ख़्वाहिश के अफ़साने अरमानों के पन्नों पर
ताज़ा-ताज़ा चाहत के कुछ किस्से लिखने वाले हैं

चाँद उतर आया था मेरे छज्जे पर कल शाम ढ़ले
बात खुलेगी आज, सितारे जलने-भुनने वाले हैं

क़तरा-क़तरा उम्र पिघलने को है सारी की सारी
पलकों पर ठिठके-ठिठके लम्हे भी बहने वाले हैं

सुलगी-सुलगी यादों ने ये आग लगाई है कैसी
बिस्तर, कंबल, चादर, तकिया सारे जलने वाले हैं

बौराये मिसरों को जबसे बाँध लिया है शेरों में
चंद फ़साने अपने भी अब, देखो, बिकने वाले हैं
{मासिक "वर्तमान साहित्य" के जुलाई 2013 अंक में प्रकाशित}