02 October 2012

तपते तलवे, कमबख़्त चाँद और एक कुफ़्र-सी याद...

बड़ी देर तक ठिठका रहा था वो आधा से कुछ ज्यादा चाँद अपनी ठुड्ढी उठाए दूर उस पार  पहाड़ी पर बने छोटे से बंकर की छत पर| अज़ब-गज़ब सी रात थी...सुबह से लेकर देर शाम तक लरज़ते बादलों की टोलियाँ अचानक से  लापता हो गईं रात के जवान होते ही| उस आधे से कुछ  ज्यादा वाले चाँद का ही हुक्म था ऐसा या फिर दिन भर लदे फदे बादल थक गए थे आसमान की तानाशाही से...जो भी था, सब मिल-जुल कर एक विचित्र सा प्रतिरोध पैदा कर रहे थे| ....प्रतिरोध? हाँ, प्रतिरोध ही तो कि दिन के उजाले में उस पार पहाड़ी पर बना यही बंकर सख़्त नजरों से घूरता रहता है इस ज़ानिब राइफल की नली सामने किए हुये और रात के अंधेरे में अब उसी के छत से कमबख़्त चाँद घूर रहा था|  न बस घूर रहा था...एक किसी गोल चेहरे की बेतरह याद भी दिला रहा था बदमाश...

सोचा था
हाँ, सोचा तो था
बताऊंगा उसको
आयेगा जब फोन 
कि
उठी थी हूक-सी इक याद
उस पार वाले बंकर की छत पर
ठुड्ढी उठाए चाँद को
ठिठका देख कर 

गश्त की थकान लेकिन
तपते तलवों से उठकर
ज़ुबान तक आ गई थी 
और 
कह पाया कुछ भी तो नहीं... 

सोच रहा हूँ 
अब के जो दिखा बदमाश
यूँ ही घूरता हुआ 
उठा लाऊँगा उस पार से 
और रख लूँगा 
तपते तलवों पर गर्म स्लीपिंग बैग के भीतर

पूछूंगा फिर उसको फोन पर
कि
इस हूक-सी याद का उठना
कुफ़्र तो नहीं, 
जब जा बसा हो वो मुआ चाँद
दुश्मनों के ख़ेमे में...???


पता नहीं, उस पार वाले बंकर के नुमाइंदों को किसी की याद आ रही होगी कि नहीं चाँद को यूँ ठिठका देखकर !!!  दिलचस्प होगा ये जानना...


22 comments:

  1. इक हुक सी जो उठी है इधर, कुछ तो उधर भी होता होगा.
    चाँद न सही इस रात का, कुछ तो असर होता होगा.

    ReplyDelete
  2. उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवार के चर्चा मंच पर ।।

    ReplyDelete
  3. इस हूक-सी याद का उठना
    कुफ़्र तो नहीं,

    क्या बात...

    ReplyDelete
  4. पूछूंगा(पू......छुंगा ) फिर उसको फोन पर.......पू .......छुंगा
    कि
    इस हूक-सी याद का उठना
    कुफ़्र तो नहीं,
    जब जा बसा हो वो मुआ चाँद
    दुश्मनों के ख़ेमे में...???

    बेहतरीन प्रस्तुति .

    ReplyDelete
  5. गश्त की थकान लेकिन
    तपते तलवों से उठकर
    ज़ुबान तक आ गई थी
    और
    कह पाया कुछ भी तो नहीं... आँखों में जाने कितने लम्हें लिए एक सैनिक बस सोचता जाता है !

    ReplyDelete
  6. पूछूंगा फिर उसको फोन पर
    कि
    इस हूक-सी याद का उठना
    कुफ़्र तो नहीं,
    जब जा बसा हो वो मुआ चाँद
    दुश्मनों के ख़ेमे में...???

    उफ़ ………मोहब्बत !!!!!!!!!

    ReplyDelete
  7. एक सैनिक की भावनाओं को जीवंत कर दिया है ... बहुत सुंदर

    ReplyDelete
  8. सीमा-रेखा चाँद का बिछावन है... वह इस बिछावन पर इस-उस करवट होता रहता है :)

    ReplyDelete
  9. पूछूंगा फिर उसको फोन पर
    कि
    इस हूक-सी याद का उठना
    कुफ़्र तो नहीं,
    जब जा बसा हो वो मुआ चाँद
    दुश्मनों के ख़ेमे में...???


    पता नहीं, उस पार वाले बंकर के नुमाइंदों को किसी की याद आ रही होगी कि नहीं चाँद को यूँ ठिठका देखकर !!!
    bahut khoob दिलचस्प होगा ये जानना..

    ReplyDelete
  10. बहुत खूबसूरत, सामने वाला भी क्या इतने प्यार से सोच पाता होगा?

    ReplyDelete
  11. "पता नहीं, उस पार वाले बंकर के नुमाइंदों को किसी की याद आ रही होगी कि नहीं चाँद को यूँ ठिठका देखकर !!! दिलचस्प होगा ये जानना.."

    मैं पूछ कर बताऊँ क्या...??? तुम्हारी राज़दार, तुम्हारी खूफिया भी बन सकती है वैसे.... जब चाहे आज़मा लो...

    ReplyDelete
  12. ये सीमायें इंसान की बनायी हैं ,चाँद बेचारा क्या जाने.उसपार वाले की भी अपनी मजबूरी होगी.

    ReplyDelete
  13. ज़बरदस्त...आपकी लेखनी में ताजगी है और हिंदी उर्दू का इतना बेहतरीन सम्मिलन बहुत कमाल का है!!

    ReplyDelete
  14. बहुत खूब!सुन्दर कविता . उस पार वाले बंकर मे भी यही चल रहा होगा. शर्तिया.

    ReplyDelete
  15. गश्त कर रहे है या चाँद देख रहे है...:-\
    उस पार वाले बंकर मे भी यही चल रहा होगा:)

    ReplyDelete
  16. चांद को देख कर हमें क्यूं याद उनकी आती है ।
    दुश्मन की छाती भी चांद को देख जुडा जाती है ।

    युध्दरत सैनिक के भी ऐसे कोमल भाव ।

    आखिर उस पार भी इन्सान ही तो हैं ।

    ReplyDelete
  17. यह सच है कि संवेदना कभी भी, कहीं भी अपने पैर पसारती है!
    बेहतरीन है। देर से आते हो भईया, पर....कह तो जाते ही हो..

    ReplyDelete
  18. वाह....
    इससे बेहतर क्या?

    अनु

    ReplyDelete
  19. Gautam saab... behtareen... Tasavvurat gazab hain huzoor :)

    ReplyDelete
  20. सबके चांद सलामत रहें।

    ReplyDelete

ईमानदार और बेबाक टिप्पणी दें...शुक्रिया !